हम दोनों की मुक्ति
by Abhishek Thakur on Friday, 16 September 2011 at 11:20
मुक्ति से
मेघ नहीं थे मेरे पास
बरस रहे थे
इस रेगिस्तान के पार कहीं
जो पहुंचा सकें
मेरा सन्देश तुम तक
इसलिए कर लिया था
साझा
अपने और तुम्हारे शहर
की हवाओं से
ले आया करतीं हैं
तुम्हारी खुशबू
मुझे महकाने को
कैसे सौंप दिया तुमने
मुझे उन्हें ही
मेरे घर की मुंडेर
सिर्फ मेरी कब थी भला
साथ में ही तो देखे थे
ना वो सारे स्वप्न
तारों को साक्षी मानकर
बिस्तर पर गिरे आंसुओं में
याद नहीं तुम्हे
तुम्हारा भी हिस्सा था
माफ़ करना
तुम्हारे पैराहन
का कोई रंग
लिख नही पाया हूँ अब तक
पर तुमने देखा है कभी
मेरे कमरे में पड़े अनेक कागजों पर
जाने कितने बार कोशिश की है
उन रंगों को उतारने की
अब तक उतर नहीं पाया
ये मेरी ही गलती होगी
तुम्हारी चिट्ठी
हाँ सबसे नीचे लगा रखी है मैंने
आधार है ना वो मेरे वजूद का
उसने ही सिखाया था
साँस लेने का मतलब
तुम्हारे घर की चट्टानों
पर उग आये हैं कैक्टस
पर तुमने सोचा है कभी
उनकी जड़ों को
सींचता वो लाल लहू
रोज कहाँ से आ जाता है
तुम्हारी आँखों से रौशनी
चुरा ली थी मैंने कुछ पलों के लिए
ताकि बना सकूँ एक नया शहर
तुम्हारे वास्ते
पर देखो ना
एक एक ईट चुन कर रखते
पहली मंजिल भी नहीं भी नही बना पाया अब तक
रोज मुस्कुरा लेता हूँ
तुम्हारे सामने आते ही
ताकि दे सकूँ तुम्हे
भरम अपने खुश होने का
लो मैंने इनकार कर दिया है मुक्त होने से
और प्रतीक्षारत हूँ तुम्हारा हाथ थामे
हम दोनों की मुक्ति का
- अभिषेक ठाकुर
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