अतीत और वर्तमान की पहेलियों से दूर
मैं खोज रहा हूँ
अपने उगने की जमीन
तुम हिस्सा हो ना मेरे उस 'मैं' का
खोज रहा हूँ
उन रास्तों को
जिन पर मंजिल के आने
पर साथ छूटने का डर न हो
और न हो एक दूसरे का गला काटते
जल्दी पहुँच जाने की इच्छा
जहाँ तुम्हारा हाथ थामें
बस चलते जाना हो
रिश्तों और देह की गणित से परे
जहाँ तुम उतर सको मुझ मैं
तुम्हारी सांसों के तेज और धीमे होने से
सुन लूं तुम्हारे मन को
मैं खोज रहा हूँ वो जंगल
जहाँ मेरी नेमप्लेट
पलाश और जामुन
जैसे नामों में खो जाए
बरसात को समा जाने दूं
अपनी जड़ों में
और देख सकूँ
ओस को
अपने पत्तों पर नाचते हुए
बसंत आने पर फैला दूं
अपनी बाहें
और सोख लूं
सरसों की खुशबू
अपने हर रोम में
मैं खोज रहा हूँ वो घर
जहाँ सोने के लिए
तुम नींद की गोलियां न खाओ
अपनों की ही घूरती आँखों से दूर
जहाँ हमारी बिटिया
बड़ी हो सके
आँगन के नीम के साथ
कोने पे पड़ी झाड़ू की तरह
तुम रह न जाओ
बस मांजते संवारते
जहाँ तुम्हारे भूखे रहने पर
निगल न पाऊँ
मैं भी कुछ
अतीत और भविष्य की
पहेलियों से दूर
मैं खोज रहा हूँ 'खुद' को
- अभिषेक ठाकुर
मैं खोज रहा हूँ
अपने उगने की जमीन
तुम हिस्सा हो ना मेरे उस 'मैं' का
खोज रहा हूँ
उन रास्तों को
जिन पर मंजिल के आने
पर साथ छूटने का डर न हो
और न हो एक दूसरे का गला काटते
जल्दी पहुँच जाने की इच्छा
जहाँ तुम्हारा हाथ थामें
बस चलते जाना हो
रिश्तों और देह की गणित से परे
जहाँ तुम उतर सको मुझ मैं
तुम्हारी सांसों के तेज और धीमे होने से
सुन लूं तुम्हारे मन को
मैं खोज रहा हूँ वो जंगल
जहाँ मेरी नेमप्लेट
पलाश और जामुन
जैसे नामों में खो जाए
बरसात को समा जाने दूं
अपनी जड़ों में
और देख सकूँ
ओस को
अपने पत्तों पर नाचते हुए
बसंत आने पर फैला दूं
अपनी बाहें
और सोख लूं
सरसों की खुशबू
अपने हर रोम में
मैं खोज रहा हूँ वो घर
जहाँ सोने के लिए
तुम नींद की गोलियां न खाओ
अपनों की ही घूरती आँखों से दूर
जहाँ हमारी बिटिया
बड़ी हो सके
आँगन के नीम के साथ
कोने पे पड़ी झाड़ू की तरह
तुम रह न जाओ
बस मांजते संवारते
जहाँ तुम्हारे भूखे रहने पर
निगल न पाऊँ
मैं भी कुछ
अतीत और भविष्य की
पहेलियों से दूर
मैं खोज रहा हूँ 'खुद' को
- अभिषेक ठाकुर
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