Saturday 1 October 2011

आज़ादी के नाम

किताबों के पन्ने पलटता हूँ
इंटरनेट पर दी हैं सैकड़ों परिभाषाएं
आजादी की
रट रहा हूँ
जीने की आजादी
...मजहब की आजादी
बोलने की आजादी
समान होने की आजादी
कमर में बम लपेटे
मांग रहे हैं कुछ लोग आजादी
यहाँ की आजादी
वहां से आजादी
एक कुनैन की गोली के लिए
कल मर गया था वो बस्तर के जंगलों में
इरोम शर्मीला ने दस सालों से नहीं खाया है कुछ भी
हर शहर से मिल जाया करती है लाशें अब भी
कीमत दे रहीं होतीं है जानने की
काम नहीं है उसके पास
तोड़ता रहता है शीशे
जलाता रहता है बसें
या पिघलता रहता है खुद ही
गेहूं गाँव तक नहीं पहुंचा वापस
सड़ गया इस बरसात में कहीं
कीड़े नहीं मारे उसने दवा से इस बार
ख़त्म कर ली थी जिंदगी
उसके दोस्त पानी मांग रहे थे फसलों के लिए
बंदूकें उग आई हैं अब कपास की जगह
रट रहा हूँ परिभाषाएं अब भी
दूर कहीं लाल किले पर फहरता तिरंगा
अब भी मांगता रहता है लाल लहू
बहुतों से आज भी नहीं पाया होगा
दो जून का भोजन
राजपथ से थोड़ी दूर खड़ा भिखारी
अब भी देख रहा है तिरंगे की ओर
शांत, स्निग्ध, अविचल


- अभिषेक ठाकुर

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