Saturday 22 October 2011

अनकहा प्रेम

प्रेम व्याप्त है
अनकहे शब्दों
और अनसुने जज्बातों के साथ
हम दोनों के अनबोलेपन के साथ
बह कर चला आता है फिर भी
घर से निकलने पर घेर लेता
दुआ बन कर
समझने की कोशिश
पूरी नहीं हो पाई है अब तक
तुम्हे जान भी नहीं सकता कभी
ज्ञाता और ज्ञेय का भेद
जन्म दे देता है दो अलग अस्तित्वों को
पर अजनबी भाषा के संगीत की तरह
तुम समा रही हो मुझ में
बिना समझे, बिना जाने
जुड़ गया है रिश्ता कोई
पर तुम्हारे न होने पर
तुम ही देखती हो दीवारों पर अपना नाम
और शाम ढल जाया करती है जल्दी ही
                   - अभिषेक ठाकुर

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