Saturday 1 October 2011

रेत

खिड़कियाँ कभी बंद नहीं करता
जाने कब तुम्हारी खुशबू
गुजर रही हो मेरे शहर से
देखा करता हूँ शाम का सुर्ख रंग
रेत पर उतरते
टीले के उस पार से
बंजारिन पुकारा करती है बूंदों को
सूखी रेत पर कल ही तो देखे थे
तुम्हारे पांवों के निशान
पर रेत ने छुपा लिया है
उन्हें अपने सीने में
अपने होठों की पपड़ाई परत पर चिपकी रेत से
पूछा करता हूँ पता तुम्हारा
तुम्हारी खुशबू नहीं आई है अब तक
लेकिन रेत भरने लगी है मेरे बिस्तर में
मैंने अब खोल दिए हैं दरवाजे भी
आरामकुर्सी पर बैठा देख रहा हूँ
फर्श पर तुम्हारा नाम लिखती रेत को
                                                - अभिषेक ठाकुर

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