Monday 28 November 2011

पति और पुत्र के लिए
भूखी रहती तुम
दे देती हो अपने हिस्से की जिंदगी
रिश्तों को
कभी नही लड़ा है कोई
यमराज से तुम्हारी उम्र के लिए
आधा पेट रह कर बाँट देती हो
उठ जाते हैं लोग
बिना देखे तुम्हारी थाली की ओर
निर्जला रहने पर भी
सब कुछ चलता रहता है
सुबह से शाम तक वैसा ही यंत्रवत
पपड़ाए होंठों से दुआ करती तुम
ताजा हैं अभी पीठ पर बेल्ट के निशान उतने ही
तुम्हारी मुक्ति का चाँद नही उगा है अभी
दूर ढक रखा है उसे
असमानताओं के बादलों ने
- अभिषेक ठाकुर

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