पति और पुत्र के लिए
भूखी रहती तुम
दे देती हो अपने हिस्से की जिंदगी
रिश्तों को
कभी नही लड़ा है कोई
यमराज से तुम्हारी उम्र के लिए
आधा पेट रह कर बाँट देती हो
उठ जाते हैं लोग
बिना देखे तुम्हारी थाली की ओर
निर्जला रहने पर भी
सब कुछ चलता रहता है
सुबह से शाम तक वैसा ही यंत्रवत
पपड़ाए होंठों से दुआ करती तुम
ताजा हैं अभी पीठ पर बेल्ट के निशान उतने ही
तुम्हारी मुक्ति का चाँद नही उगा है अभी
दूर ढक रखा है उसे
असमानताओं के बादलों ने
- अभिषेक ठाकुर
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