बिस्तर के कोने में सिमटकर
गिरा दिए हैं मैंने पहरे सारे
कुछ धुंधला सा चल रहा है कहीं
मन में शायद
पहचानने की कोशिश करता हूँ
रंग, बिम्ब, व्यक्ति, और प्रतीक
अधजगी आँखें कुछ देख नही पातीं
अतीत धुंधलाता जाता है
हाथ भीगे से लगते हैं पसीने से
तुमको छूने की कोशिश नहीं करता
जली दाल की गंध नथुनों से टकरा कर लौट जाती है
बिस्तर के कोने में सिमटा
देखो मैं जग गया हूँ
बिन सोये ही.
- अभिषेक ठाकुर
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