Monday 28 November 2011

हमारे शहरों के बीच की दूरी
बढ़ गयी है हमारे दिलों में
पर जाने क्यूँ
नक्शों में
रोज ही देखा करता हूँ
तुम्हारे शहर का नाम
खोज लिया करता हूँ
तुम्हारी मोहल्ले के
आस पास के किसी
धुंधलाते प्रतीक को
रोज शाम ढ़लने तक
मन में छिपे असंख्य रास्तो में
एक बार दोहरा लेता हूँ
तुम्हारे घर तक पहुँचने वाले
रास्ते को
क्या देख पाई थी तुम कभी
तुम्हारे पास होने पर
अनायास आ जाने वाली
मुस्कराहट को
तुम्हारे घर का रास्ता भी
तुम्हारी तरह अजनबी
हो रहा है
- अभिषेक ठाकुर

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