Monday 28 November 2011

विदा का आलिंगन
मीठा नही था इस बार
फिर से मिलने की उम्मीद
तोड़ दी है हम दोनों ने
पर सब कुछ टूट कहाँ पता है
ऐसे जुड़ जाने के बाद
तुम्हारे सिरहाने रखी होगी
मेरी तस्वीर वैसे ही
मेरे खतों को बंद कर दिया होगा
तुमने अपने बक्से मैं
और धुधंला जाते होंगे
हर रोज कुछ शब्द
तुम्हारे गिरते आंसुओं के साथ
पड़ जाती होगी चीनी
ज्यादा अपने आप ही
और महसूसती होगी
मुझे
उस मीठेपन के साथ
जो मेरे प्याले से निकल कर
समा गया है तुम में
मौसम के साथ दीवारों के
बदलते रंग से बेखबर
सो रहा है तुम्हारा नाम
ठिठुरती ठण्ड में
तुम्हारे बुने स्वेटर
आ जाते हैं मुझे घेरने अब भी
और तुम्हारे हिस्से की शाम
ढल जाती है मेरे ही मोहल्ले में
हरसिंगार के फूल
महका करते हैं अब भी तुम्हारी ही तरह
और रोज लिख दिया करता हूँ
उनसे तुम्हारा नाम बगीचे में
सुबह नही हो पाती तुम्हे देखे बिना
और जागा करता हूँ
अजनबी आवाजों के साथ
सब कुछ टूट नहीं पाया है अब तक
पर देखो टूट चुकें हैं
हम दोनों ही
- अभिषेक ठाकुर

No comments:

Post a Comment