जमीन, जंगल ,नदी
सब मैं ही तो था
हजारों सालों से नदी
मेरी उम्र की तरह
बरसात में चढ़ती उतरती थी
इन दरख्तों पर पड़ी सिलवटें
मेरे चेहरे की झुर्रियों की तरह ही तो थीं
इन्ही से लिपटकर सो जाता था चुपचाप
जंगल बस देते जाते थे
तुमने उस से माँगा ही कब
तुमने उजाड़ डालें जंगल
मोड़ डालीं नदियाँ
वो दरख़्त मुझसे पहले ही मर गया है
ये चंद सडकें तुमने मेरे लिए ही बनायीं थीं ना
लो में जंगल छोड़ कर इन्ही सड़कों पर रहा करता हूँ
- अभिषेक ठाकुर
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