देवदार के पेड़ों के बीच की
पगडण्डी का खोना
डराया नहीं करता था
पर आस पास
उग आये हैं
बबूल के जंगल
बीहड़ों में भटकता
रास्ते अजनबी
लगने लगे हैं
तुम्हारी भाषा की तरह
हवाओं से मौन
तिरोहित हो चुका है
जाने कब का
बहता पिघला शीशा
मारता नही
जन्म देता है बस
अनंत यंत्रणाओं को
पर इनसे गुजर कर
फिर से कुंदन नहीं
होऊंगा मैं
इस हानि लाभ
और मूल्य बढ़ने की गणित
से दूर
शायद मैं जान पाऊँ
बिना मूल्य
का अस्तित्व
- अभिषेक ठाकुर
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