परिचित चेहरों के बीच
खुद को अपरिचित पाना
और तलाश करना
नए क्षितिजों की
जहाँ से मिल सकें
उड़ने का नया अन्तरिक्ष
क़दमों को ढ़ोने की जगह
खेल सकूँ बचपन के खेल
जब खाली कर दूं
सारी जेबें
भरने को अनगढ़ पत्थर
थिरक पाऊँ
बांसों से आती आवाज पर
और वक़्त मिटा पाए
मेरे होने का निशान
बहुत सारे सपनों के बीच
क्या देख पाई हो तुम
स्वपन मेरी आँखों के
- अभिषेक ठाकुर
No comments:
Post a Comment