संभावनाओं की यात्रा
Monday 28 November 2011
मैंने सोचा था
बुन लूँगा एक घर
अपने और तुम्हारे खातिर
मेरे सपनों के ईटों से
दीवाल पूरी तो हो गयी है
पर तुम्हारे सपनों का रंग
चढ़ नही पाया है अब तक
घर नही बुन पाया मैं
पर देखो ना
कब्र को भी लोग
मकान का नाम दे देते हैं
- अभिषेक ठाकुर
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