Monday 28 November 2011

वर्ष के अट्ठारह दिन
सजा लेते हो
मेरे रूप की ही मूर्ति
और बाकि दिन छूट
जाती हूँ मैं तुम्हारे बहुत पीछे
जब तुम्हारी पंचायतें
के फैसलों से जोत दी जाती हूँ
बैलों की जगह
आसानी से साबित कर दी जाती हूँ
कुल्टा और डायन
इज्जत के नाम पर घर के लोग ही
छीन लेते हैं जीने का हक
मेरे जन्म लेने पर भी
पाबंदी लगा देते हो तुम
सर्वभूतेषु का मंत्र जपते तुम
तय करते हो मेरा चरित्र
मेरे कपड़ों के आधार पर
उन मूर्तियों के सामने ही
जला दी जाती हूँ
दहेज़ के लिए
वो अट्ठारह दिन भी
तुम संभाल कब पाए हो
सही अर्थों में
तभी तो
वैदेही और पांचाली के सवाल
पर चुप हो जाती है सभा
और खड़े कर दिए जाते हैं
अलग अलग मानदंड
सिर्फ मेरी ही खातिर
समझ नहीं पाती
देवी की जय बोलते
तुम्हारे होंठ
कैसे सवाल उठाने लगते हैं
मेरे मनुष्य होने पर ही
- अभिषेक ठाकुर

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