Wednesday 19 September 2012

तुझ से जुदा होकर भी तेरे शहर के ख्वाब
मेरे ख्वाबों में जिन्दा हैं तेरे शहर के ख्वाब

ये रातों का जहर कैसे खोज पता तुझको
मेरी मुट्ठी में छिप गये हैं तेरे शहर के ख्वाब

अँधेरा अब भी मेरे आँगन से डरा करता है
शाम होते ही उतर आते हैं तेरे शहर के ख्वाब

तेरी आरजू अब नही किया करता 'अतम'
तेरे ना होने से हैं तेरे शहर के ख्वाब
- अभिषेक ठाकुर
दो कहानियाँ

सुनहरे कवर में लिपटी डायरी ने
जज्ब किए कुछ शब्द
सुबह से होती बारिश के साथ
उसका हँसना
और पत्तियों से टपकती
बूँदें
और उसने लिखा
आज शाम उदास थी

सामने की सड़क पर अब तक
कोई सोने नहीं आया
और फुटपाथ पर बनती
रोटियां अभी कच्ची हैं

- अभिषेक ठाकुर
केंचुल छोड़ते सांप ने
पीछे मुड़ कर देखा
और पारदर्शी आँखों
से उतर आई एक परत
रसोई की खिडकियों
पर
- अभिषेक ठाकुर
सडकें कहीं पहुंचती नहीं
बस जोड़ देती हैं
बिकती मूंगफलियों
को धूल और रात में जलते
चूल्हे के साथ
उस पार नगर निगम का नल
रोज बच जाता है
खुद की उगाई फिसलन से
और उगल देता है
दूध अलसुबह ही

जब सड़क सोने की कोशिश करती है
एक दूधिया जोड़ रहा होता है
प्लास्टिक में छुपी डायरी में
बगल वाले गुप्ता जी का हिसाब
बीच का गड्ढा नया आया लगता है
ऑटो चलता गुड्डू
याद करता है बाकि बची सवारियों को
किनारे खड़े खम्भे से एक तार
उतर आया था नीचे
पिछली बारिश में
फोटू भी तो खींचे थे ना
पहचान लिया था जीवन जर्नल स्टोर
वाले ने
सड़क को अख़बार में
सड़क समेट नही पाती
अब
खुद पर से गुजरते लोगों को
किनारे का फुटपाथ टूटता है
मूंगफलियाँ खुश हैं
रामदीन सोचता है
गाँव का बिस्तर खाली
ही रह जाता होगा
- अभिषेक ठाकुर
बंधन तोडती
कुछ रेखाएं
सफ़ेद पन्नों पर
ताजे खुदे हर्फ़
एक और किताब
लिख दी है उसने
प्रेम पर
मैं पढ़ नही पाया
आखिर तक
वो पन्ना

मिटते अक्षर
मौन होना चाहते हैं
-अभिषेक ठाकुर
पढ़ रहा हूँ
तुम्हारा नाम
उदास के एक गीत की तरह
पहला अक्षर.............
पत्तों के अलग हो जाने की कहानी
और अकेली दोपहरों की धूप सा है
छाँव की तलाश
बेमानी हो चुकी है
अंतहीन दिन से
थक जाती है

पंखे के चलने की आवाज
.................
- अभिषेक ठाकुर
ताजे उगे बुरांस के फूलों सी
रात
समेट ली है मैंने अपनी आँखों में
और अपने शहर के क्षितिज पर
फैला दिया है
सुनहरी यादों को
पर तुम्हारे शहर में
रात जाने कैसे
बदल गयी है
अनंत पीड़ा में

गमले में उगे नन्हे पौधे
की जिद
से
चाँद खिंच आया है
शायद थोडा और करीब
आज की रात
घिर आने दो
थोड़े से और बादलों को
और ढक लेने दो
उस दीवार को
जो पनप आई है
रात के बीच
- अभिषेक ठाकुर
आज शाम घिर आएगी
कुछ जल्दी ही
समन्दर किनारे की पीली रेत से
मिट चुकी होगी हमारी हथेलियों की छाप
लहरों ने फेंक दिए हैं
सीपियाँ और कुछ रंग बिरंगे पत्थर
जिन्हें हाथों में भर
खुश हो जाएगा
एक नन्हा सा बच्चा
और हम हँस देंगे उसकी मासूमियत पर

और भूल जायेंगे दुखती हुई सांसों
और हथेलियों के बीच पिघलती हुई ऊष्मा को
- अभिषेक ठाकुरआज शाम घिर आएगी
कुछ जल्दी ही
समन्दर किनारे की पीली रेत से
मिट चुकी होगी हमारी हथेलियों की छाप
लहरों ने फेंक दिए हैं
सीपियाँ और कुछ रंग बिरंगे पत्थर
जिन्हें हाथों में भर
खुश हो जाएगा
एक नन्हा सा बच्चा
और हम हँस देंगे उसकी मासूमियत पर
और भूल जायेंगे दुखती हुई सांसों
और हथेलियों के बीच पिघलती हुई ऊष्मा को
- अभिषेक ठाकुर