Sunday 21 October 2012

दर्द करने की हद तक
जबरदस्ती खुली हुई आँखों
ने लिखा
'कविता पीड़ा है'
पीले पड़ चुके पन्नों ने
जज्ब किया
एक और आंसू
और वक़्त की नसों
में बहते जीवन ने
उगा दिया

कुछ लम्हों को
'कविता व्यर्थ है'
समान्तर चलते
दो शहरों ने भोगा
उन दोनों के साथ
मिलन और पसीजे हाथों को
'मौन कविता है'
- अभिषेक ठाकुर
अँधेरे क़दमों और
हरी घास के दरमियाँ
बसे उसके सफ़ेद कमरे
को ढक रखा गया था,
एक लोहे की चादरों वाली खिड़की से
जिसमें से गुजरे कुछ रेत के टुकड़े
फर्श को सजा नही पाते थे
उसने पहली बार देखा
सबसे किनारे वाली दीवार पर चिपके
सूखे पन्ने के कुछ अक्षरों को

हाथों से समेटी गयी रेत से
उसने ईश्वर नही लिखा
उसने लिखा
'लोहे की चादरों वाली खिड़कियाँ
घर नहीं बनातीं '
- अभिषेक ठाकुर
दोराहे पर खड़े रास्तों
के साथ
चिल्लाते हैं कुछ शब्द
अमलताश के सूख चुके पत्तों
में उभर नहीं पाती कोई कविता
मैं सोच नहीं पाता
महसूसता हूँ
गले हुए जिस्मों पर
लाल स्याही से बने निशानों को
कविता !

फिर से ढूंढ़ लेगी
कुछ जीते जागते शब्द
- अभिषेक ठाकुर

Monday 8 October 2012

गेरुए रंग में
तुम्हारी मिलाई
थोड़ी
सी रेत
आकार नही दे पाती
कृष्ण और राधा को
पृष्ठभूमि में धुंधलाती है
पानी की तलाश में
मीलों चलती एक परछाईं
रेत का स्वाद अभी भी
खारा है
- अभिषेक ठाकुर