Thursday 24 January 2013

इक शाम,

पीले चाँद की ऊँगली थामे

कुछ यादें मुझसे मिलने आयीं थीं

... उदासी का एक गीत

जिसमें 'तुम ' नहीं

तुम्हारा ना होना था

हमने साथ गुनगुनाया

एक कहानी जिसमें

कोई राजा या रानी नही थीं

थे सिर्फ गुलाम

अपनी इच्छाओं की गठरी ढ़ोते

कुछ रोते और टुकड़ों में जीते

वे खोजा करते हैं -

रेगिस्तान की पीली रेत में

पीले चाँद का अक्स

बरसों पहले

तुम्हारी बातों की ऊँगली थामे

चाँद मेरे गाँव के तालाब में

उतर आता था

ताकि धुल सके

अपने चेहरे का पीलापन

आज भी चाँद पीला ही है

और मैं इंतजार कर रहा हूँ बिन सोए

पीले रंग की केंचुल उतरने का
- अभिषेक ठाकुर

Monday 21 January 2013

ताजे उगे बुरांस के फूलों सी
रात
समेट ली है मैंने अपनी आँखों में
और अपने शहर के क्षितिज पर
फैला दिया है
सुनहरी यादों को
पर तुम्हारे शहर में
रात जाने कैसे
बदल गयी है
अनंत पीड़ा में
गमले में उगे नन्हे पौधे
की जिद
से
चाँद खिंच आया है
शायद थोडा और करीब
आज की रात
घिर आने दो
थोड़े से और बादलों को
और ढक लेने दो
उस दीवार को
जो पनप आई है
रात के बीच
- अभिषेक ठाकुर
मैंने पहली बार जाना
कवितायेँ
सिर्फ शब्द नही होतीं
वो सांस लेती हैं
गर्म बेचैन सांसें
और जोड़ देती हैं
सर्द रात को
सुबह की गर्मी से
हम दोनों के बीच
ऊँचे दरख़्त थे
और अनचीन्हे फूलों
से घिरी एक बेनाम कब्र
हर रात जमे हुए आंसुओं
को तय करना पड़ता था एक
फासला
और हर रात वो बदल
देती थी
जमी हुई भावनाओं
को जिन्दा
साँस लेती
कविताओं में
- अभिषेक ठाकुर

Saturday 12 January 2013

उसके चारो तरफ सींकचों जैसा कुछ भी नहीं था , बस तारों का एक घेरा था , महीन रेशम से तार , हर सुबह अंगड़ाईयों और चोटिल उँगलियों के बीच वो सोचता था कि सुबह की धूप जैसे सुनहरे इन तारों का रंग रात को स्याह कैसे हो जाता है ?

स्याह और सफ़ेद होने के बीच
पहचाना था उसने
एक और रंग
जो ख्वाब देखती
उसकी उँगलियों से रिसता था
याद रखने की उसकी इच्छा
साँस लेने जितनी ही आदिम थी
एक लम्बी सी लकीर
जिसका रंग
पीड़ा जैसा था
अपने जिस्म से धूप
पकड़ने की कोशिश
के बाद भी
वो बना नही पाया था
अब तक चाँद का चेहरा
और वो अब भी सोचता है
इतने खुबसूरत तार
जख्म कैसे दे सकते हैं ?
- अभिषेक ठाकुर

सफ़ेद कोहरे से ढकी रेत और दम तोड़ते अलाव के बीच सोचता हूँ उस आखिरी बचे हर्फ़ के बारे में नदी जलती रही थी सारी रात घुटनों तक नदी में खड़े उस साधू के कांपते हाथों ने झूठ कहा था - अभिषेक ठाकुर ( संगम और फिर से अमृत की तलाश )