Saturday 12 January 2013

उसके चारो तरफ सींकचों जैसा कुछ भी नहीं था , बस तारों का एक घेरा था , महीन रेशम से तार , हर सुबह अंगड़ाईयों और चोटिल उँगलियों के बीच वो सोचता था कि सुबह की धूप जैसे सुनहरे इन तारों का रंग रात को स्याह कैसे हो जाता है ?

स्याह और सफ़ेद होने के बीच
पहचाना था उसने
एक और रंग
जो ख्वाब देखती
उसकी उँगलियों से रिसता था
याद रखने की उसकी इच्छा
साँस लेने जितनी ही आदिम थी
एक लम्बी सी लकीर
जिसका रंग
पीड़ा जैसा था
अपने जिस्म से धूप
पकड़ने की कोशिश
के बाद भी
वो बना नही पाया था
अब तक चाँद का चेहरा
और वो अब भी सोचता है
इतने खुबसूरत तार
जख्म कैसे दे सकते हैं ?
- अभिषेक ठाकुर

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