Tuesday 19 February 2013

"दूर उस पार , आबनूस के घने पेड़ उसकी उम्र के साथ ही बड़े हुए थे | बारिश के हर मौसम के बाद इन पेड़ों के बीच से गुजरने के साथ अक्सर वो उस नीले फूलों वाले पेड़ों को खोजा करता था जिसके बारे में उसने अपने पूर्वजों से सुन रखा था | जो बारिश के बाद बस कुछ दिनों के लिए दिखाई देते थे और जिनके तनों से गुजरती हवाओं को सुन लेने पर वो जानवरों की बोली भी समझ सकता था"
पढ़ रहा हूँ
तुम्हारा नाम
उदास के एक गीत की तरह
पहला अक्षर.............
पत्तों के अलग हो जाने की कहानी
और अकेली दोपहरों की धूप सा है
छाँव की तलाश
बेमानी हो चुकी है
अंतहीन दिन से
थक जाती है
पंखे के चलने की आवाज
.................
- अभिषेक ठाकुर
बहुत हुनरमंद था वो , पुराना ऊन और उसके हाथ मिलकर गलीचों पर जाने क्या क्या उतार दिया करते थे | जाने क्यूँ एक दिन उसने एक लम्हा बुनने की कोशिश की , ऊन को एक तरफ रख वो उस भूरे रंग वाली पिटारी से कुछ यादें उठा लाया , सुनहरे रेशम में लिपटी यादें -

बया के घोसलों के मानिंद

बुन रहा था तुम्हें

मेरे ख्यालों के धागे

उलझ उलझ जाते थे

शाम का उजाला

जल्दी ढल गया था कल

धागे का एक सिरा

तुम्हारे दुपट्टे में फँस गया था शायद

या तुमने लपेट लिया होगा अपनी उँगलियों में

कई कोशिशें कर चुका हूँ मैं

अतीत के इस धागे को काट कर फेंक देने की

अभी तो बुने थे

बस चंद आंसू

बुने थे वो तारे

जो बचपन से हम दोनों के साथ थे

बुन ली थी वो नदी

जो हम दोनों के गाँव के बीच बहा करती थी

माफ़ करना तुम्हें बुन नहीं पाया अब तक

धागे का एक सिरा

फँस गया है तुम्हारे दुपट्टे में

और उँगलियों में लपेट कर

बंद कर ली है तुमने अपनी मुट्ठी

- अभिषेक ठाकुर
दो कहानियाँ

सुनहरे कवर में लिपटी डायरी ने
जज्ब किए कुछ शब्द
सुबह से होती बारिश के साथ
उसका हँसना
और पत्तियों से टपकती
बूँदें
और उसने लिखा
आज शाम उदास थी
सामने की सड़क पर अब तक
कोई सोने नहीं आया
और फुटपाथ पर बनती
रोटियां अभी कच्ची हैं

- अभिषेक ठाकुर
तुम सच कहती थी याद तो वैसे भी मुझे कुछ नही रहता , शब्द भी नहीं , अपनी ही लिखी कवितायेँ भी नहीं | अब इसमें मैं क्या करूँ कि बस एक दिन में तुम्हारा शहर सांसें लेने लगा है मुझमें ? इतने साल बीतने के बाद भी उस शहर के जिक्र का मतलब तुम्हारा जिक्र है | कोई जगह सिर्फ एक दिन में ही रगों में घुल सकती है क्या ? पर तुमने झूठ कहा था वक्त सब कुछ नही मिटा सकता ..............

पीले बैक ग्राउंड पर काले अक्षरों
से लिखा इक शहर का नाम
मेरे शहर से कुछ मीटर ऊपर
तैरता जमीन का टुकड़ा
दो खोई सी आँखें
तलाश रही हैं
बाहर निकलते लोगों में
शर्ट का रंग
साथ चलने से थका सूरज
झुक गया है क्षितिज पर
और संदेशा ले जाते बादल
रुक गए हैं
पहाड़ी की तलहटी में
'थकान हो गयी होगी न'
होंठों ने ना कहा
और आँखों ने हाँ
नल से टपकती बूंदों की गति
कम होती जा रही है
आवाज सिमट
गयी है उसके होंठों पर
और भूरे फ्रेम के चश्मे
के नीचे
से झांकती और तौलती आँखें
"यहाँ से रिक्शा लेना होगा"
मुस्कुरा देती हैं
दो लड़कियां
और साथ में वो भी
उजली सी हँसी
याद आती है
कोई पुरानी सी तस्वीर
फुटपाथ पर बनती
चाय की महक वैसी ही है
तुमने तो पूछा भी नहीं
कैसी हो '
चमक उठती हैं बिल्लौरी आँखें
घड़ी पर चिपकी धूल
में समय खोजता
चौंक पड़ता हूँ
'ये काला धागा क्यूँ
बांध रखा है'
कलाई पर ऊँगलियों
की छुअन
सोख लेती है
थोडा सा ताप
और अचानक
महसूसने लगता हूँ
पॉकेट में गिर आये
हरे पत्ते को
'बस अगला मोड़'
जोड़ता हूँ
घर से निकले घंटों को
बुखार से बोझिल पलकें
याद करती हैं
गली दर गली
दरवाजा खुश
हो जाता है उसकी तरह
और वो हँसती है
इस बेतरतीबी पर
'चाय बना देती हूँ'
देखता हूँ
छुपा कर रखी गयी तस्वीर
इंतजार करती किसी लड़की की
सिरहाने रखी अमृता प्रीतम
की कवितायेँ
'चाय अच्छी है '
इक डायरी में कविता
कुछ याद नहीं आता
वो देखती है पेन का हिलना
और लिखा जाना
इश्क के सिर्फ सफ़र होने के बारे में
'लौटना तो कल है ना'
कमरा सुनता है
और वो देखती है
अचानक घिर आई रात को
सफ़ेद धुला चेहरा
शब्द बह जाते हैं
और मैं सुनता हूँ
निस्तब्धता को
- अभिषेक ठाकुर
वो शब्द तलाश रहा था इन दिनों , वो आखिरी शब्द जो विदा होते समय नदी ने उससे कहा था | उसने सोचा शब्द ही तो है , एक अदना सा शब्द , वैसे भी वो देश का ख्यातिप्राप्त विद्वान था | शब्दों से खेलने और शब्दों का अर्थ बदलने के उसके हुनर के कायल पूरी पूर्वी दुनिया में फैले थे | पुस्तकालयों की कई दिन खाक छानने बाद वो उस शब्द से मिलता जुलता शब्द भी खोज नही पाया | वो पांडुलिपियों की तलाश में उत्तर के सुदूर मठों तक गया | उसने पत्र लिखे उन रहस्यवादियों और सुदूर पश्चिम के कबीलों को जिनका जीवन पूरी तरह नदियों पर ही निर्भर था | अंत में उसने एक बुजुर्ग के बारे में सुना जो पानी और हवा को समझ सकता था जो इतनी दूर रहता था कि सबसे तेज चलने वाला पानी का जहाज भी एक साल में उस तक पहुँच सकता था | उसने निश्चय किया कि वो इस शब्द को खोज कर रहेगा |
बरसात भिगो रही है
गड्ढों में पड़ी सड़क को
मुंडेर पर बैठी गौरैया
छिप नहीं पाई थी
बच्चे भूखे होंगे शायद
चंद चावल के दाने
जो बिखेरे थे मैंने
उसके आने के पहले ही
गायब हो चुके हैं
गुलमोहर की छोटी छोटी
पत्तियां हिल भी नहीं रहीं हैं
अब तो
पी जाना चाहती हैं
हर इक बूंद को
कॉफ़ी में मिला दी थीं
कुछ बूंदें बारिश की
और देख रहा हूँ भीगते
खम्भों को
- अभिषेक ठाकुर
तुम्हारा और मेरा होना,
कितना प्यारा है ना
जब नदी सागर के साथ जोड़ी जाती है
मुआफ करना पर मैं नहीं चाहता
लोग हमारी तुलना करें
बिना समझे
हमें !
-Abhishek
नींद से भरी पलकों
के दर पर नींद का ना
आना अजीब सा है
और उतना ही अजीब है
अपने लगाये हरसिंगार
के पौधे की इंच दर इंच
बढती पत्तियों को
देखना
और इंतजार करते रहना
उस पहले फूल का
जो बन जाता है प्रतीक
सृजन का
पर तुम हँस देती हो
हैरान नहीं होती
इन में से किसी बात पर
और सोचती हो
तितलियों के पंखों
के रंगों के बारे में
और खोजती हो
नक्शों पर
परियों के देश को
सच !
कितना अजीब है ना
नींद का पलकों पर आना
और विदा हो जाना चुप चाप
- अभिषेक ठाकुर
रेत के जिरहबख्तर में सिमटी उस पुरानी पीली डायरी के साथ उसके क़दमों ने उसी भटकन को चुना जिस से वो इतनी देर से भाग रहा था | उसके जिरहबख्तर का रंग दूर तलक फैली रेत से मिलकर स्लेटी हो चुका था | उसने हिसाब लगाने की कोशिश की मसक में बची पानी की चंद बूंदों और अनजानी मंजिल के बारे में . | हर कदम पर साथ देने वाले तारे भी आज शायद उसकी तरफ नही थे |
प्रेम व्याप्त है

अनकहे शब्दों

और अनसुने जज्बातों के साथ

हम दोनों के अनबोलेपन के साथ

बह कर चला आता है फिर भी

घर से निकलने पर घेर लेता

दुआ बन कर

समझने की कोशिश

पूरी नहीं हो पाई है अब तक

तुम्हे जान भी नहीं सकता कभी

ज्ञाता और ज्ञेय का भेद

जन्म दे देता है दो अलग अस्तित्वों को

पर अजनबी भाषा के संगीत की तरह

तुम समा रही हो मुझ में

बिना समझे, बिना जाने

जुड़ गया है रिश्ता कोई

पर तुम्हारे न होने पर

तुम ही देखती हो दीवारों पर अपना नाम

और शाम ढल जाया करती है जल्दी ही

- अभिषेक ठाकुर