Tuesday 19 February 2013

बहुत हुनरमंद था वो , पुराना ऊन और उसके हाथ मिलकर गलीचों पर जाने क्या क्या उतार दिया करते थे | जाने क्यूँ एक दिन उसने एक लम्हा बुनने की कोशिश की , ऊन को एक तरफ रख वो उस भूरे रंग वाली पिटारी से कुछ यादें उठा लाया , सुनहरे रेशम में लिपटी यादें -

बया के घोसलों के मानिंद

बुन रहा था तुम्हें

मेरे ख्यालों के धागे

उलझ उलझ जाते थे

शाम का उजाला

जल्दी ढल गया था कल

धागे का एक सिरा

तुम्हारे दुपट्टे में फँस गया था शायद

या तुमने लपेट लिया होगा अपनी उँगलियों में

कई कोशिशें कर चुका हूँ मैं

अतीत के इस धागे को काट कर फेंक देने की

अभी तो बुने थे

बस चंद आंसू

बुने थे वो तारे

जो बचपन से हम दोनों के साथ थे

बुन ली थी वो नदी

जो हम दोनों के गाँव के बीच बहा करती थी

माफ़ करना तुम्हें बुन नहीं पाया अब तक

धागे का एक सिरा

फँस गया है तुम्हारे दुपट्टे में

और उँगलियों में लपेट कर

बंद कर ली है तुमने अपनी मुट्ठी

- अभिषेक ठाकुर

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