Tuesday 19 February 2013

तुम सच कहती थी याद तो वैसे भी मुझे कुछ नही रहता , शब्द भी नहीं , अपनी ही लिखी कवितायेँ भी नहीं | अब इसमें मैं क्या करूँ कि बस एक दिन में तुम्हारा शहर सांसें लेने लगा है मुझमें ? इतने साल बीतने के बाद भी उस शहर के जिक्र का मतलब तुम्हारा जिक्र है | कोई जगह सिर्फ एक दिन में ही रगों में घुल सकती है क्या ? पर तुमने झूठ कहा था वक्त सब कुछ नही मिटा सकता ..............

पीले बैक ग्राउंड पर काले अक्षरों
से लिखा इक शहर का नाम
मेरे शहर से कुछ मीटर ऊपर
तैरता जमीन का टुकड़ा
दो खोई सी आँखें
तलाश रही हैं
बाहर निकलते लोगों में
शर्ट का रंग
साथ चलने से थका सूरज
झुक गया है क्षितिज पर
और संदेशा ले जाते बादल
रुक गए हैं
पहाड़ी की तलहटी में
'थकान हो गयी होगी न'
होंठों ने ना कहा
और आँखों ने हाँ
नल से टपकती बूंदों की गति
कम होती जा रही है
आवाज सिमट
गयी है उसके होंठों पर
और भूरे फ्रेम के चश्मे
के नीचे
से झांकती और तौलती आँखें
"यहाँ से रिक्शा लेना होगा"
मुस्कुरा देती हैं
दो लड़कियां
और साथ में वो भी
उजली सी हँसी
याद आती है
कोई पुरानी सी तस्वीर
फुटपाथ पर बनती
चाय की महक वैसी ही है
तुमने तो पूछा भी नहीं
कैसी हो '
चमक उठती हैं बिल्लौरी आँखें
घड़ी पर चिपकी धूल
में समय खोजता
चौंक पड़ता हूँ
'ये काला धागा क्यूँ
बांध रखा है'
कलाई पर ऊँगलियों
की छुअन
सोख लेती है
थोडा सा ताप
और अचानक
महसूसने लगता हूँ
पॉकेट में गिर आये
हरे पत्ते को
'बस अगला मोड़'
जोड़ता हूँ
घर से निकले घंटों को
बुखार से बोझिल पलकें
याद करती हैं
गली दर गली
दरवाजा खुश
हो जाता है उसकी तरह
और वो हँसती है
इस बेतरतीबी पर
'चाय बना देती हूँ'
देखता हूँ
छुपा कर रखी गयी तस्वीर
इंतजार करती किसी लड़की की
सिरहाने रखी अमृता प्रीतम
की कवितायेँ
'चाय अच्छी है '
इक डायरी में कविता
कुछ याद नहीं आता
वो देखती है पेन का हिलना
और लिखा जाना
इश्क के सिर्फ सफ़र होने के बारे में
'लौटना तो कल है ना'
कमरा सुनता है
और वो देखती है
अचानक घिर आई रात को
सफ़ेद धुला चेहरा
शब्द बह जाते हैं
और मैं सुनता हूँ
निस्तब्धता को
- अभिषेक ठाकुर

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