Tuesday 23 April 2013

खिड़कियाँ कभी बंद नहीं करता

जाने कब तुम्हारी खुशबू

गुजर रही हो मेरे शहर से

देखा करता हूँ शाम का सुर्ख रंग

रेत पर उतरते

टीले के उस पार से

बंजारिन पुकारा करती है बूंदों को

सूखी रेत पर कल ही तो देखे थे

तुम्हारे पांवों के निशान

पर रेत ने छुपा लिया है

उन्हें अपने सीने में

अपने होठों की पपड़ाई परत पर चिपकी रेत से

पूछा करता हूँ पता तुम्हारा

तुम्हारी खुशबू नहीं आई है अब तक

लेकिन रेत भरने लगी है मेरे बिस्तर में

मैंने अब खोल दिए हैं दरवाजे भी

आरामकुर्सी पर बैठा देख रहा हूँ

फर्श पर तुम्हारा नाम लिखती रेत को

- अभिषेक ठाकुर

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