Tuesday 23 April 2013

रात के इन क्षणों में से
बचा लिया है मैंने खुद का इक कोना
जहाँ पहुँच पाते हैं
सिर्फ सपने मेरे
तुम्हारे सो जाने पर
जग जाया करती है
मेरी डायरी चुपचाप
और जाने क्या
उकेरा करती हूँ अपनी कल्पना में
उन बातों को
जो सुन नही पाते तुम
बोल दिया करती हूँ
अपनी कविताओं में
आँखों से गिरे मोती
छुप जाया करते हैं
दो पंक्तियों के बीच
अपनी कार की तरह
क्या तुम संभाल पाओगे
मेरे बचपन की नन्हीं चूड़ियों को
माफ़ करना तुम्हारी तरह
सीख नहीं पाई हूँ
हिसाब-किताब
इसीलिए रिक्शेवाले को
दे दिए थे कुछ पैसे ज्यादा
रोज मांग नहीं पाती
बूढ़े नौकर से हर पैसे पर पर्ची
इस सर्वस्व समर्पण के बाद भी
कुछ बच गया है मेरे पास
जो दे नहीं पाई हूँ तुम्हें
जो सहमत नहीं हो पाता
तुम्हारी बहुत सी बातों से
बच गया है
मेरे अंदर का कोई कोना
जहाँ से जन्म लिया करती है
अजन्मी कविता
- अभिषेक ठाकुर
तुम्हें आगोश में समेटकर
अक्सर ही आ जाता है
ख्याल
समय को बांधने और रोक देने को
कोशिश की है बस इस पल में
जी लेने की तुम्हारे साथ
पर तुम में उतर नही पाता कभी
परिधि को छू कर लौट आने की
प्रक्रिया
तुम होती जाती हो मंथर और शांत
बाँट दिया गया है दिन और रात को
बस संध्या के कुछ क्षणों की खातिर
अनंत प्रतीक्षा को स्वीकार कर लिया है दोनों ने
सूरज की तरह अकेले जलने की पीड़ा भोगता मैं
हैरान हो जाता हूँ
जब मेरे ही ताप को ज़ज्ब करके
बरसाया करती हो तुम उन्हें चांदनी रातों मैं
स्वाति की गिरती बूंदों को समेत लेनो दो सीपियो को ही
मुक्त हो जाने दो उन्हें भी
समेटना मत
इस से पहले कि कीमत तय हो मोतियों कि
खो जाने देना उन्हें सागर में
और भावनाओं के पर्वत से उतरते हम
डूब जाएं उन सीपियों के साथ
शिखर से उलट
जहाँ सिर्फ एक के खड़े होने कि जगह हो
हम दोनों बना सकें मिलन कि तस्वीर
सिर्फ हम दोनों के रंगों के साथ
जहाँ अलग अलग होना सिर्फ अपूर्णता हो
और एक होना बना सके एक नयी यात्रा का पथ
और मेरा हाथ थामना
नीली लकीरें न खींच पाए
तुम्हारे हाथों पर
- अभिषेक ठाकुर
नींद से बोझिल आँखों और
होश खोने के बीच
एक कोना अभी भी नितांत मेरा है
इस एक क्षण
कुछ कौंध सा जाता है हर रोज
अपने जालों के बीच मकड़ी
कुछ बड़ी सी लगती है
हटाए जाने की चिंता से बेखबर
फिर से बुन देगी कुछ और जाले
दीवाल पर टंगे नक्शे में रोज
खोजा करता हूँ अपने कस्बे का नाम
कैलेंडर के उड़ते पन्नो जैसे
वक़्त भाग रहा है कहीं
मेज पर पड़ा लैम्प
लड़ रहा है अकेले 'अन्ना' की तरह
जमीन पर रेंग रहे है कुछ सपने
नए शिकारों की तलाश में
अभिशप्त आत्माओं में
भटक रहे हैं कुछ नए सवाल
सब ने बत्तियां बुझा दी हैं
उनकी पुकार सुनकर
कुछ और घरों को नदी ने
लील लिया था कल
लोग नदी नहीं आसमान को देखते हैं अब
कुछ सूखे बिस्किट टपक पड़ेंगे शायद
फुटपाथ पर बन रही है रसोई
आधी कच्ची रोटियों की खुशबू
खींच लाई है चंद कुत्तों को
कोने में अब भी खड़ा सोता जागता
रिक्शे वाला देख रहा है सपना
सवारियों का और उनसे जुड़े सपनो का

- अभिषेक ठाकुर
खिड़कियाँ कभी बंद नहीं करता

जाने कब तुम्हारी खुशबू

गुजर रही हो मेरे शहर से

देखा करता हूँ शाम का सुर्ख रंग

रेत पर उतरते

टीले के उस पार से

बंजारिन पुकारा करती है बूंदों को

सूखी रेत पर कल ही तो देखे थे

तुम्हारे पांवों के निशान

पर रेत ने छुपा लिया है

उन्हें अपने सीने में

अपने होठों की पपड़ाई परत पर चिपकी रेत से

पूछा करता हूँ पता तुम्हारा

तुम्हारी खुशबू नहीं आई है अब तक

लेकिन रेत भरने लगी है मेरे बिस्तर में

मैंने अब खोल दिए हैं दरवाजे भी

आरामकुर्सी पर बैठा देख रहा हूँ

फर्श पर तुम्हारा नाम लिखती रेत को

- अभिषेक ठाकुर
घड़ी की सुईयां वहीं थीं , समय के वैसे ही चक्कर लगाती , उसी वर्तुल पर घुमती हुई | रात कितनी उमस भरी थी , और ये कमबख्त पर्दा रह-रह कर गिर जाता है | कितनी बार तो सोचा उसने महीन जालों वाली खिड़की ला कर लगा दे , पर हर रात को इस खुले हिस्से से अंदर आते पतंगे जैसे उसकी आदत हो गये हों | जिनके बिना उसे अपनी टेबल लैंप की रौशनी अधूरी लगती थी |