Wednesday 21 September 2011

तुम्हारे जाने के बाद


तुम्हारे जाने के बाद
कुर्सी अब भी कांप रही है
तुम्हारी आहट से
मेरे मन की तरह
पर्दों पर अब भी ताजी है
तुम्हारी छुअन
गुलदस्तों में लगे फूलों से
झांक रहीं है अब भी
तुम्हारी सपनीली आँखें
तुम्हारा झूठा प्याला
भर लिया है मैंने खुद से ही
कानो के पास सरसराती हवा में
अब भी गूंज रही है
खनक तुम्हारी हंसी की
अभी खुली नहीं है
वो गांठ जो तुमने लगा दी थी मेरे दुपट्टे में
मुझे सताने को
वो गजल अभी ख़त्म नहीं हुई
जो सुन रहे थे तुम
नज्मों की तरह गूंज रहे हो अब भी
तुम मेरे कानों में
मेरी आँखों के कोनो में अभी अटके हैं वो मोती
जो तुम्हे देख कर झलक आए थे यूँ ही
खिड़की के पास खड़ी देख रही हूँ
तुम्हें दूर जाते हुए
पर तुम्हारी तरह तुम्हारा दूर जाना भी
 भ्रम है ना
तुम दूर जाओगे और  बिंदु के जैसे
फिर से मुझ में समा जाओगे
                            - अभिषेक ठाकुर

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