Friday 7 October 2011

आँख उठाते रहे हैं हम

यूँ बारिशों का लुत्फ़ उठाते रहे हैं हम
पांव दरिया में डाले आँख उठाते रहे हैं हम


उनकी मसरूफ़ियत के भी यारों क्या कहने
हाथों में जाम ले कर पिलाते रहे हैं हम


हमारे हाथ अब उस शजर को पा नहीं पाते
जिसकी शाख अपने हाथों से सजाते रहे हैं हम


वो दर्द-ए-दिल के सिवा और मुझको क्या देगा
इसी उम्मीद में खुद को कब से बहलाते रहे हैं हम


वतन की याद यूँ ही तो छूट नहीं जाती
परदेश में भी राखी मनाते रहे हैं हम


मेरे दोस्तों ने मुझे चाहा है डूबकर
इसी बहाने से दुश्मनी निभाते रहे हैं हम

                                     - अभिषेक ठाकुर

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