Tuesday 15 November 2011

कुछ कहानियाँ पूरी नहीं हो पातीं

आज ना जाने क्यूँ ये बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही है ? ऑफिस का इतना सारा काम पड़ा है पर ये गिरती बूँदें , ऐसा लगता है जैसे इन बूंदों से कोई गहरा नाता हो , जब भी बारिश देखती हूँ मेरे अंदर कुछ भर सा जाता है | ४ साल हो गए इस शहर में आये हुए पर अभी भी ये उतना ही अजनबी लगता है जैसा पहली बार प्लेटफ़ॉर्म पर उतरते हुए लगा था , कितना लड़ना पड़ा था यहाँ आने के लिए , परिवार, रिश्तेदार यहाँ तक की पडोसी भी , उनकी नज़रों में तो बड़ा शहर जैसे कोई अँधा कुआं था और मैं जान बूझ कर उस में गिरने वाली थी | उस वक़्त तो आँखों में बस अपनी नयी जिंदगी के सपने थे , उम्मीद थी कि अब कम से कम में अपनी अलग पहचान बना पाऊँगी | बाबूजी ने तो घर से निकलते हुए कुछ कहा भी नहीं था पर चश्मे के भीतर से झांकती उनकी आँखों को मैं कभी भूल ही नहीं पाती | शुरू शुरू में तो इस शहर कि तेज रफ़्तार में मैं मीलों पीछे छुट जाती थी | घर से कॉलेज और उसके बाद जीने कि जद्दोजेहद और कुछ सोचने का मौका ही नहीं देती थी और एक दिन आईने में गौर से देखने पर पता चला कि वो चार साल पहले की अर्पिता कहीं गुम हो चुकी थी | पता ही नहीं चला कब इस शहर ने मुझे अपने हिसाब से ढाल लिया | कॉलेज ख़त्म होने के बाद जल्दी ही नौकरी भी मिल गयी थी ,सोचा था पहली तनख्वाह सीधे ले जा कर माँ के हाथ में रख दूंगी पर माँ ने तो पहले ही कह दिया बेटीअब अपने लिए घर ले ले , कब तक यूँ ही किराये के घर में रहेगी? ज्यादा वक़्त नहीं लगा ऑफिस से लोन पास होने में और कुछ वक़्त बाद ही इस शहर में सर छुपाने के लिए मुझे खुद की जगह मिल गयी | पर इन सबके बीच बहुत कुछ अधूरा सा लगता है , पिछली बार जब माँ यहाँ आई थी तो कितना कहने पर भी उसने अपने लिए कुछ नहीं लिया | कभी कभी डर लगता है कहीं मैं भी माँ की तरह तो नहीं हो रही हूँ ना , प्रिया वैसे भी कहती रहती है ये क्या हमेशा उदास रहा करती है तू ? पर जिस मर्ज का पता मुझे खुद ना हो उसका मैं प्रिया को क्या जवाब दूं?
इन यादों को वक़्त ने ना जाने कहाँ कैद कर के रख दिया था पर आज की बारिश उन सब किनारों को तोड़े दे रही है और यादें पिघले लोहे की तरह मेरी नसों को जला देना चाहतीं है | ये माया भी ना कोई काम ठीक से नहीं करती पता नहीं कॉफ़ी पाउडर कहाँ रख दिया है ? सोचा था कॉफ़ी पीने से सर का दर्द कुछ तो कम होगा, इन चार सालों ने इतना दर्द भर दिया है की सर दर्द की गोलियां भी असर नहीं करतीं | बारिश अभी भी रुकी नहीं है और और अब तो हवा भी चलने लगी है | अपार्टमेन्ट के बाहर खड़े नीम के पेड़ की पत्तियां जैसे बारिश का उत्सव सा मना रही हों , ये पेड़ अक्सर नानी के आँगन के नीम के पेड़ की याद दिला देता है , वो पेड़ जिससे बचपन की ना जाने कितनी यादें जुडी हैं | ऐसा क्यूँ होता है कि बुरी यादें भी दर्द देती हैं और अच्छी यादें तो दर्द के साथ तडपाती भी है और ये तड़प दर्द से भी बुरी है , ठीक से जीने ही नहीं देती | हर गर्मी कि छुट्ठी में हम लोग नानी के यहाँ जाते थे और जब माँ ही मेरे और भैया में भेद करती हो उस वक़्त नानी का स्नेह अजूबा सा लगता था , उनके सामने में जिद्दी हो जाया करती थी और भैया मुझे चिड़ाने के लिए अक्सर उनकी गोद में बैठ जाया करता था और उस वक़्त मुझे सच में लगता था कि काश नानी सिर्फ मेरी होतीं |
उनकी हाथों का स्पर्श मेरे लिए माँ के स्पर्श से भी ज्यादा सुखद था पर | कॉलेज में थी मैं जब बाबूजी ने फ़ोन करके कहा था कि नानी अब नहीं रहीं , कितना रोई थी मैं उस दिन , उनसे मिलना तो अब हो नहीं पता था पर लगता था कि उनका हाथ अब भी मेरे सर पर वैसे ही है , परीक्षाएं होने कि वजह से मैं अभागी तो उनके अंतिम दर्शन भी ना कर पाई | उस दिन लगा जैसे मेरे सर पर अब किसी का साया ही नहीं बचा |
पर जिंदगी रूकती कहाँ है वो तो दरिया कि तरह बस बहती जाती है और भले ही मैं जी न रही हूँ पर सासें तो आ जा रहीं हैं ना |
हाँ दरिया ही तो है ना जिंदगी और मैं उस दरिया पे पड़े कंकड़ की तरह बस बहती जा रही हूँ , ऐसा कंकड़ जिसके होने पर उसका ही वश नही है , अगर वश होता तो यूँ जिंदगी मुझे अपने साथ बहा नहीं पाती और ना ही खुशियाँ मेरे दरवाजे पर सिर्फ दस्तक दे कर ही लौट जातीं | बारिश फिर से तेज होने लगी है और बारिश से बचने के लिए एक नन्ही सी चिड़िया मेरे बालकनी के एक कोने में सिमटी हुई है , बचपन में कितने सपने देखे थे चिड़िया बन कर मुक्त गगन को छूने के पर अब लगता है की मुक्ति तो बस एक भरम थी | जितना ऊँचा उड़ते जाओ तनहाइयाँ और अकेलापन उतना ही बढ़ता जाता है और बचपन में सपने देखते समय मुझे कहाँ पता था कि मैं उड़ तो पाऊँगी पर तमाम सफ़र मुझे अकेले ही तय करना पड़ेगा | आज तो जैसे दर्द से भरे पुराने पन्ने एक के बाद एक मेरी आँखों के सामने आ रहे हों | अजीब है ना दर्द का रिश्ता भी , हंसी कि तरह ये भी लोगों को कितनी आसानी से जोड़ देता है और जैसे हर गिरते आंसू के साथ बीच का अजनबीपन मिटता जाता हो | इसी दर्द का तो साझा था ना रवि के साथ , ऑफिस के पहले ही दिन उसके हंसी के पीछे का दर्द जाना पहचाना सा लगा | रवि के अनाथ होने कि बात तो मुझे बहुत बाद में पता चली पर उसकी आँखों में मुझे अपना ही अतीत दिखाई देता था | उसकी झलकने को तैयार आँखों ने जैसे ज़माने भर का दर्द समेट रखा हो ,इस साझे दर्द ने हम दोनों को एक दुसरे के बहुत करीब ला दिया न जाने कब वो मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गया और मुझ सदा सदा की वंचिता को ईश्वर ने जैसे सब कुछ दे दिया हो | बस मन करता था उसके आगोश में सिमटकर उसे सुनती रहूँ और उसे अपने प्यार से इतना भर दूं कि रवि के अंदर दर्द समाने के लिए कोई कोना ही ना बचे | अपने माथे पर उसके होंठों कि पहली छुअन ने सारे किनारों को तोड़ डाला और मैं उसके सामने फूट फूट कर रो पड़ी थी , उस वक़्त रवि ने कुछ नहीं कहा सिर्फ मुझे अपने आगोश में समेट लिया था , मैं उस से लिपटी न जाने कितनी देर तक रोती रही थी उसकी हाथ अपने हाथों में पकड़े रहने मुझे यकीन दिलाता था कि जिंदगी ने मेरे हिस्से में भी कुछ खुशियाँ लिख हुईं थीं |
पर इंसान ये खुशियाँ भी कहाँ संभाल पाता है ? रवि जितना मेरे करीब आ रहा था उस से बिछड़ने का डर मन के किसी हिस्से को हमेशा घेरे रहता था | अपनी खोई खोई आँखों का उसे मैं क्या जवाब देती? कैसे कहती कि जब सिर्फ अंधेरों कि आदत हो तो हल्की सी रौशनी भी दिल को बेचैन कर देती है | पर इन सबके बीच रवि के लिए तो दुनिया ही मुझसे शुरु होती थी , मेरे इर्द -गिर्द उसकी बाँहों का कसाव मेरे हर दर्द को मानो निचोड़ लेना चाहता हो | मुझे अपने सीने से चिपकाये हुए न जाने कितनी बार उसने मुझे बिखरने से बचाया था | उसका साथ धीरे धीरे सब कुछ बदलने लगा था , पहली बार सावन ने मुझे रुलाया नहीं था , उसके करीब होने का एहसास अधेरों पर भारी पड़ने लगा था और जीवन में पहली बार मैंने देखा था कि तसवीरें सिर्फ स्याह ही नहीं होतीं उनमें रंग भी होते हैं ,चटख रंग | मेरे जन्मदिन पर रवि ने मुझे ऑफिस जाने ही नहीं दिया और उसी दिन मैंने जाना कि इस भागते शहर कि जिंदगी का एक दूसरा पहलू भी है और इस शहर में भी बहुत से शहर और गाँव बसते हैं | रवि का हाथ थामे समंदर किनारे चलने का एहसास , उसके हाथों की गर्माहट , सब कुछ एक सपना ही तो था | रवि के साथ सूरज डूबते हुए देखते वक़्त लगा कि मेरी जिंदगी में गमों का अँधेरा अब कभी नहीं होगा , मेरा सर उसके कंधे पर था और समंदर किनारे की हवा एक सिहरन सी पैदा करती थी , उस रात जब वो मुझे घर छोड़ कर वापस जा रहा था , मुझे लगा जैसे कोई मुझसे मेरा होना ही छीन रहा हो | वो सारी रात तो आँखों आँखों में ही गुजर गयी | रवि अब मेरे अस्तित्व का हिस्सा बन चुका था , जिसके सामने मैं खुल कर रो सकती थी , जिसके साथ होने पर किसी और की तमन्ना नहीं होती थी | मैंने कितनी बार उससे कहा था की उसका ये प्यार मुझे डराता है और बदले में वो सिर्फ हंस देता था | कितनी उजली हो गयी थी उसकी हंसी लेकिन उसकी आँखें अब भी वैसी ही लगतीं थी भरी भरी | और मेरा दिल उन आँखों में भरा हुआ प्यार देख सकता था , सोचा था कि उसके गम बाँट कर उसे खुशियों से भर दूंगी पर रवि तो सिर्फ मुझसे मेरे गम बांटता था |
लेकिन मेरे लिए इन गमों को बांटना इतना आसान कहाँ था , जिससे जख्मों पर मरहम रखने की उम्मीद थी उस वक़्त ने ही उन्हें नासूर में बदल दिया था | इस से पहले बस छली ही तो गयी थी मैं, कितना वक़्त लगा था रवि को अपने गमों का और उन जख्मों का साझेदार बनाने में जो जिंदगी ने मुझे तोहफे में दिए थे | रवि से वही तो बाँट सकती थी ना जो मेरे अंदर बेहिसाब भरा हो , उस दिन मेरी आवाज मेरा ही साथ नहीं दे रही थी और मेरे अश्क मुझे अपने गमों को बहा देने का मौका दे रहे थे | अक्सर यही तो होता है ना जो मेरे साथ उस दिन हो रहा था अँधेरा आने पर सबसे पहले परछाई ही साथ छोड़ जाती है | और कुछ देर बाद तो मेरे पास शब्द ही नहीं बचे थे , जिंदगी के बाकि पन्नों को तो मेरी हिचकियों ने ही रवि तक पहुँचाया था | उस दिन रवि कि आँखें मानो मुझे छुपा लेना चाहतीं हों , पहली बार लगाकि पुरुष का ये रूप कितना सुखकर होता है | उसकी हथेलियों ने मेरे सर को ढक लिया था , ऐसे में वक़्त का होश ही कहाँ था मुझे ? शाम को जब उठी तो पता चला कि रवि की हथेलियों ने मुझे अभी भी वैसे ही घेर रखा है | उस दिन रवि ने कुछ नहीं कहा पर उसकी मौजूदगी ही मेरे मन को संबल दे रही थी | उस दिन के पहले तो रवि कभी कभी मुझसे लड़ लिया करता था पर अब लगता था जैसे मेरी हर सोच , हर इच्छा में ही उसकी रजामंदी हो | जिसके विचारों और आंकाक्षाओं की कभी कोई कीमत ही नहीं रही हो उसके लिए तो ये सब एक अनहोनी ही थी |
बारिश भी अब रुक गयी है , बचपन में सोचती थी कि हर साल बादल इतने सारे आंसूं कहाँ से ले आते हैं ? ऐसा कौन सा गम है जो इन बादलों को भी यूँ बरसने पर मजबूर कर देता है ? पर आज जाना कि इस में इन बादलों का कोई कसूर नहीं , वो तो बेचारे कभी धरती से मिल ही नहीं पाते और कैसा महसूस करते होंगे वो जब क्षितिज का भरम न उन्हें मिलन का उत्सव मानाने देता होगा और ना विरह का विलाप ही करने देता होगा |
अब समझ पायी थी कि जब भाग्य ने ही तन्हाई का शाप दे दिया हो तो कैसा महसूस होता होगा उन बादलों को , कुछ यथार्थ भोगे बिना कहाँ समझ में आते हैं? आठवीं कक्षा में पढ़ी गुनाहों का देवता की सुधा का दर्द मैं कहाँ समझ पाई थी और न ही ये समझ पाई थी कि अपनी बीवी कि तस्वीर अपने गले में लटकाए घूमने वाला मेरे मोहल्ले का वो आदमी रात भर किसे बुलाया करता था | उस समय तो माँ ने यही बताया था कि वो आदमी अपनी बीवी कि मौत के गम में पागल हो गया था | लेकिन जिस वाकये को गुजरे इतना समय बीत हो गया वो आज मुझे क्यूँ याद आ रहा है? मन ने पासा फेंका तेरी आँखें भी उसी आदमी कि आँखों कि तरह दिखने लगी हैं , ओफ्फ़ ! क्या हो रहा है मुझे ? मेरे लाख ना चाहने पर भी चेहरा अपने आप आईने कि तरफ मुड़ गया | छोटे से आईने में बाल सवांरते देख कर रवि ने कहा था इतने छोटे से शीशे में तुम तो पूरी दिखती भी नहीं हो और जिद करके उसी दिन ये आईना मुझे दे कर गया था | अक्सर कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठ कर वो मुझे बाल सवांरते हुए देखा करता था , उसके आगोश में सिमट जाने के अनगिनत पलों का साक्षी रहा है ये आईना , एक पल को लगा जैसे रवि वहीँ कुर्सी पर बैठा मुस्कुरा रहा है और अभी उठ कर अपनी बाहें फैला देगा | ऐसा लगता है जैसे मेरे दिलोदिमाग के साथ मेरे घर के हर कोने में रवि ही भर चुका हो , माया ने तो कितनी बार कहा कि घर कि सफाई कर दीजिये पर डरती हूँ कि कहीं सफाई कि वजह से रवि कि यादों कि धूल भी गायब ना हो जाये |
ये यादें भी कितनी अजीब हैं ना दरिया कि तरह आने का कोई ना कोई रास्ता खोज ही लेतीं हैं , तभी तो लगता है कि रवि उस पौधे कि पत्तियों में समाया है जो उसने मेरे घर में लगाया था , रवि अभी भी उस आईने से झांक रहा हो और जैसे कॉफी मग पर उसकी उँगलियों की छुअन अब भी उतनी ही ताज़ी हो | अपार्टमेन्ट के बहार जिंदगी फिर उसी तेजी से भागने लगी है और फिर से वही गाड़ियों का शोर कानो को परेशान
करने लगा है पर इस में इन बेचारों का क्या दोष , अब तो अपनी सबसे पसंदीदा गजलें भी सुन कर लगता है कि कानों में कोई पिघला शीशा उड़ेल रहा हो |

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