Monday 28 November 2011

तुम्हारी दिखावटी शालीनता से
झांक लिया करती है
तुम्हारी लिजलिजी आँखें
रोजमर्रा के तुम्हारे शब्द
बता जाते हैं हकीक़त
तुम्हारी सोच की
प्रेम की बात करते हुए भी
तुम्हारे शब्द इशारा कर देते हैं शरीर की ओर
शरीर तक सीमित तुम्हारा मन
कभी पहुँच न पाए मेरे अस्तित्व के
और वृत्तों तक
मेरी कविताओं की प्रशंसा करते तुम
अजीब से लगते हो
जब बिना मुझे समझे
कर रहे होते हो मेरी हंसी की तारीफ
पर इसके परे मैं हूँ
जहाँ तक पहुँच नहीं पाया अब तक कोई
इसीलिए रच देती हूँ रोज नयी कविता
अपने स्वप्नों की तरह
- अभिषेक ठाकुर

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