तुम्हारी दिखावटी शालीनता से
झांक लिया करती है
तुम्हारी लिजलिजी आँखें
रोजमर्रा के तुम्हारे शब्द
बता जाते हैं हकीक़त
तुम्हारी सोच की
प्रेम की बात करते हुए भी
तुम्हारे शब्द इशारा कर देते हैं शरीर की ओर
शरीर तक सीमित तुम्हारा मन
कभी पहुँच न पाए मेरे अस्तित्व के
और वृत्तों तक
मेरी कविताओं की प्रशंसा करते तुम
अजीब से लगते हो
जब बिना मुझे समझे
कर रहे होते हो मेरी हंसी की तारीफ
पर इसके परे मैं हूँ
जहाँ तक पहुँच नहीं पाया अब तक कोई
इसीलिए रच देती हूँ रोज नयी कविता
अपने स्वप्नों की तरह
- अभिषेक ठाकुर
No comments:
Post a Comment