तुम नहीं लिखा करती
उन रातों के बारे मैं
जो गुजर जाया करतीं थी
कोई पुरानी ग़जल गुनगुनाते
एक दूसरे का हाथ थामे
जब शाम का ढ़लता सूरज
थोड़ा और चमकीला हो जाया करता था
और कहानी पढ़ती तुम्हारी आँखें
भीग जाया करतीं थीं अपने आप
पार्क के बिखरे बेंचों पर
सुनाई दिया करती थी
तुम्हारी उजली हंसी
और जो हावी हो जाया करती थी
कमरे के पीले बल्ब की रौशनी पर
माफ़ करना
तुम्हारी नज़र से दुनिया
नहीं देख पाता मैं
और न ही सीख पाया हूँ
लोगों को मोहरे समझना
तुम्हारी कहानी के पात्रों
को जिन्दा रखने के लिए
अब भी लिखा करता हूँ मैं
- अभिषेक ठाकुर
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