Wednesday 23 November 2011

नाकामी के तमाम सुबूत धुल गए कल रात 
मैं उसके सीने पर सर रखकर खूब रोया था 
इस फसल के सुख जाने का दर्द मरने जैसा है 
इन पेड़ों के साथ ही तो सपना बोया था 
मुझे अपनेपन का सुबूत न दे डर सा लगता है 
तमाम उम्र मैं अपनों के बीच ही तो खोया था 
कच्ची नींद और उम्र ने जगा दिया उसे वक़्त से पहले ही  
वो देर रात ही तो इस सड़क पर सोया था 
खुद को ही खो दिया ख्वाब के उस टूटे टुकड़े की खातिर 
जो तेरी गली में सोते जागते संजोया था                                                  -अभिषेक ठाकुर 

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